दो जून—यह सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि एक मुकम्मल मुहावरा है। “दो जून की रोटी” का अर्थ है—दिन में दो वक्त का भोजन, यानी जीवन यापन के लिए आवश्यक न्यूनतम आमदनी। इस वाक्य में “जून” का अर्थ महीने से नहीं, समय या काल से है। आश्चर्य की बात है कि रोटी के हिस्से एक तारीख तय हुई, पर पूड़ियों और पराठों को कोई तारीख नहीं मिली।
रोटी का प्रयोग महज़ भोजन के लिए नहीं, बल्कि एक प्रतीक के रूप में होता आया है। भोजन को “रोटी” कह देना उसके महत्व को कई गुना बढ़ा देता है। रोटी, दरअसल, इंसान की सबसे बुनियादी जरूरतों में से एक है—भोजन। इंसान की दो मूलभूत ज़रूरतें मानी जाती हैं: भोजन और संभोग। लेकिन जहां संभोग की इच्छा एक आयु के बाद उत्पन्न होती है और एक उम्र के बाद महज़ हरसत बनकर रह जाती है, वहीं भोजन का संबंध जन्म से लेकर मृत्यु तक बना रहता है—मां का पहला दूध हो या मृत्यु के बाद मुख में तुलसीदल।
“दो जून की रोटी” हर युग में प्रासंगिक रही है। 1979 की फ़िल्म दो जून की रोटी में शशि कपूर और नरगिस ने यह बताया कि यह सिर्फ पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि सम्मान और अस्तित्व के संघर्ष का प्रतीक है। साहित्य में भी यह प्रतीक लगातार उभरता रहा है।
मुंशी प्रेमचंद ने इस प्रतीक को अपनी कई रचनाओं में पिरोया। पर उनके पात्रों को कभी दो जून की रोटी नसीब नहीं हुई। गोदान का होरी, पूस की रात का हल्कू, कफन का घीसू और माधव—सभी भूख के साथ जूझते हैं। जयशंकर प्रसाद का छोटा जादूगर भी रोटी के लिए करतब करता दिखता है।
रोटी सिर्फ खाने की चीज़ नहीं रही। राजनीति में भी “रोटियां सेंकने” का मुहावरा चलता है, जिसके लिए एक खास किस्म की “आग” चाहिए होती है। रोटी के अनेक रूप और स्वाद हैं—मां के हाथ की रोटी, पिता की दुर्लभ रोटी, मेड की बनी, रोटी मेकर की सीधी-सपाट रोटी, नववधू के मेंहदी लगे हाथों की मुलायम रोटी, गोल या बेगोल रोटी, गाय को खिलाई जाने वाली रोटी, भीख में मिली या ससुराल में परोसी गई रोटी—हर रोटी का स्वाद अलग होता है।
रोटी सिर्फ दो वक्त की भूख नहीं मिटाती, वह रिश्तों, संघर्षों, राजनीति और प्रेम की भी साझीदार बन जाती है। इसलिए रोटी को सिर्फ भोजन मत समझिए—यह जीवन की सबसे ईमानदार कहानी है।

